कभी अमीर नही बन पाते Education is A Trap for middle Class. 2024
2019 की एक रिसर्च में साफ पता चला कि अमेरिका जैसे देशों के अंदर 25 लाख लोग ऐसे हैं जो अपने बच्चों को स्कूल भेजना ही नहीं चाहते जब इस रिसर्च को 2 साल के बाद वापस से दोहराया गया तब ये नंबर 31 लाख पहुंच चुका था।
यानी कि 31 लाख और इनमें से ज्यादातर पेरेंट्स ऐसे हैं जो खुद टीचिंग के प्रोफेशन से जुड़े हुए हैं और यह नंबर हर साल बढ़ता जा रहा है यानी ऐसे लोग जो खुद बच्चों को स्कूल में पढ़ा रहे हैं वो खुद अपने बच्चों को स्कूल भेजना ही नहीं चाहते क्योंकि उन्हें अब ऐसा कुछ पता चल चुका है जो आज तक किसी को पता नहीं चला था।
यानी कि स्कूल को कुछ इस तरह डिजाइन किया जाता है ताकि स्कूल जाकर पढ़ाई करने वाले बच्चे कभी समझदार बन ही ना पाए और वो जिंदगी भर गरीब और मजदूर ही बने रहे और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर आप भी कभी स्कूल गए हो तो आप में से 99% लोगों ने इस चीज को बारीकी से महसूस किया होगा।
क्योंकि वहां पे आपको बचपन से ही नौकर बनाने के लिए ट्रेन किया जाता है ना कि रिच एंड सक्सेसफुल बनने के लिए अब मैं ऐसा खुलेआम क्यों बोल रहा हूं वो आप इस आर्टिकल के अंत तक आते-आते समझ जाओगे कि स्कूल और कॉलेज को किस तरह से डिजाइन किया जाता है।
ताकि आप जीवन भर बस कुछ गिने चुने लोगों के लिए काम करके उनके सपने पूरे करो और यह बात कोई मैं हवा में नहीं बता रहा हूं बिल्कुल नहीं जो जो चीजें प्रॉपर साइंटिफिक रिसर्च और एविडेंस के साथ साबित हुई है वही चीजें मैं बिना कोई फिल्टर के आपके सामने रख रहा हूं।
इससे पहले कि हम स्कूल और कॉलेज के द्वारा बनाए गए माया जाल के बारे में समझे इससे पहले हमें ये समझना होगा कि आज जो हम एजुकेशन सिस्टम को फॉलो करते हैं आखिर उसे कब और क्यों बनाया गया था आखिर इसकी जरूरत ही क्या थी।
तो बात है आज से करीब 200 साल पहले की यानी कि 1806 की जब नेपोलियन की आर्मी पर्शिया पर हमला कर देती है और पर्शिया के पास बड़ी सी आर्मी होने के बावजूद भी वो बुरी तरीके से हार जाती है अब हारने के बाद पर्शियन लीडर सोच में पड़ जाते हैं कि आखिर उनकी आर्मी जो इतनी स्ट्रांग और पावरफुल थी इसके बावजूद भी वो हार कैसे गए अब काफी ज्यादा रिसर्च करने के बाद उन्हें एक बात समझ में आती है।
कि उनकी आर्मी भले ही बड़ी और पावरफुल तो थी लेकिन उनकी आर्मी सही से ऑर्डर फॉलो नहीं करती थी यानी वॉर के दौरान पर्शियन आर्मी अपने बॉस के ऑर्डर को फॉलो करने के बजाय अपना ही दिमाग लगाना शुरू कर देती थी जबकि वहीं नेपोलियन की आर्मी आंखें बंद करके नेपोलियन के दिए गए एक-एक ऑर्डर को सही और सटीक तरीके से फॉलो कर रही थी इसलिए वो वो छोटी आर्मी होने के बावजूद भी आराम से जीत गए थे।
अब ये बात समझ में आते ही पर्शियन लीडर दोबारा से ऐसा ना हो उसके लिए एक सिस्टम बिल्ड करने लग जाते हैं एक ऐसा सिस्टम जिसकी मदद से सोल्जर के दिमाग को इस कह से ट्रेन किया जा सके जिससे कि वो बिना सोचे समझे बस अपने बॉस का ही ऑर्डर माने बस उतना ही करे और कुछ नहीं।
और भाई इस आईडिया को इंप्लीमेंट करने का सबसे बेस्ट तरीका था छोटे बच्चे के ब्रेन को कंट्रोल करना जो अभी ज्यादा सोचने के काबिल भी ना हो जिन्हें पता ही ना हो कि क्या सही है और क्या गलत उन्हें बस जो बता दिया जाए वो उन्हें सच मान ले और इस तरह से पर्शिया के अंदर पहली बार जन्म होता है पर्शियन एजुकेशन सिस्टम का जहां पर्शियन लीडर 8 साल के स्कूलिंग सिस्टम को क्रिएट करते हैं जहां 5 साल से लेकर 13 साल के बच्चों के लिए एजुकेशन को कंपलसरी कर दिया जाता है।
कोई छुटकारा ही नहीं है वहां पे आप कुछ भी करके इससे बच नहीं सकते आपको स्कूल जाना ही पड़ेगा ऊपर से इन्होंने चालाकी ये की कि इस सिस्टम को पर्शियन लीडर ने लोगों के सामने कुछ इस तरह से प्रमोट किया कि लोग ये सोचकर अपने बच्चों को खुशी-खुशी वहां पे स्कूल में भेजने लगे कि भाई हमारा बच्चा आगे पढ़ लिखकर एक बड़ा आदमी बन जाएगा।
लेकिन उन बेचार को तो पता ही नहीं था कि असल में ये एजुकेशन सिस्टम उनके बच्चों के दिमाग को खोखला करने वाला था और भाई वही हुआ पर्शियन एजुकेशन सिस्टम के अंदर सिर्फ उन चीजों के बारे में पढ़ाया गया जिससे सिर्फ पर्शिया के पूंजीवादी लोगों को फायदा हो जिससे कि बेचारे भोले भाले मासूम लोग अपने दिमाग का इस्तेमाल करने के बजाय गुलामों की तरह बस ऑर्डर फॉलो करना सीख जाए।
बस इतना ही और पर्शियां अपने ने इस प्लान में पूरी तरीके से कामयाब भी रहा लेकिन बात यहां पे खत्म नहीं हुई बल्कि जब बिलेन जॉन डी रॉक फिलर जो कि यूएसए के एक इंडस्ट्रियलिस्ट थे उनके पास उस समय एक बड़ा सा ऑयल एंपायर था लेकिन उन्हें कोई काम करने वाला मिल ही नहीं रहा था इसलिए कई बार वो जबरजस्ती से अमेरिकन को पकड़ कर के लेकर आते थे ताकि वो उनकी ऑयल फैक्ट्री में वर्कर का काम कर सके।
लेकिन इसके बावजूद भी वर्कर्स मौका मिलते ही वहां से भाग जाते थे जिसका कारण बिल्कुल सिंपल सा था क्योंकि उस समय यूएसए के अंदर लोग नौकरी को गुलामी की तरह देखते थे किसी को नौकरी करनी यानी कि गुलामी करनी पसंद नहीं थी इसलिए ज्यादातर लोग खेती करते थे या फिर अपने हाथों से बनाई हुई अलग-अलग चीजें मार्केट में जाकर बेचा करते थे।
और रही बात एजुकेशन की तो उस समय पे अमेरिका में लोग एजुकेशन पे इतना कुछ ज्यादा फोकस नहीं करते थे क्योंकि बिना पढ़ाई लिखाई के भी सब सुकून की लाइफ जी रहे थे इसलिए वहां पे कोई भी इतना ज्यादा एजुकेशन पे फोकस नहीं करता था इसीलिए रॉकफेलर ने एक चतुराई भरा प्लान बनाया उन्होंने डिसाइड किया कि वो अमेरिका को फ्री में एजुकेट करेंगे।
लेकिन उन्हें उतनी ही शिक्षा दी जाएगी जितने में लोगों को एक अच्छा वर्कर बनाया जा सके ताकि लोग उनकी फैक्ट्री में चुपचाप से 8 से 10 घंटे काम करें वो भी खुशी-खुशी और वही हुआ रॉकफेलर ने पूरे यूएसए के अंदर यह ऐलान कर दिया कि वो अमेरिकन पब्लिक स्कूल खोलने जा रहा है जहां अमेरिका के बच्चों को फ्री में पढ़ाया जाएगा।
अब यह सुनकर अमेरिका के लोग रॉकफेलर को भगवान मानने लगे लेकिन उनको कहां पता था कि उनके बच्चे स्कूल जाएंगे तो अपनी इनोसेंसी क्रिएटिविटी और जॉय को लेकर लेकिन जब वो स्कूल से बाहर निकलेंगे तब वो सिर्फ और सिर्फ एक अच्छे लेबर या मजदूर बनकर ही निकलने वाले थे और रॉकफेलर का यह प्लान कामयाब रहा जैसा वो चाहते थे बिल्कुल वैसा ही हुआ।
यहां तक कि रॉकफेलर ने तो खुलेआम पब्लिकली यह बात को कंफेस भी कर लिया कि उन्हें नेशन ऑफ थिंकर्स नहीं बल्कि नेशन ऑफ वर्कर्स चाहिए ताकि आने वाली जनरेशन भी उनके बनाए हुए सिस्टम की ही गुलाम बनी रहे और इस तरह पूरी दुनिया के अंदर एक ऐसा मॉडर्न एजुकेशन सिस्टम सामने आया जो आगे चलकर पूरी दुनिया को बदल देने वाला था और इस मायाजाल से भारत भी नहीं बच पाया।
क्योंकि उस समय हमारे देश के अंदर ब्रिटिश सरकार राज कर रही थी जहां ब्रिटिश सरकार के सामने भी सेम प्रॉब्लम थी उन्हें अपने फैक्ट्रीज में वर्कर्स तो चाहिए थे लेकिन कोई उनकी फैक्ट्रीज में काम नहीं करना चाहता था और इस बात से ब्रिटिश सरकार समझ चुकी थी कि यहां उनकी दाल नहीं गलने वाली क्योंकि एक तो उन्हें वर्कर नहीं मिलते ऊपर से लोग बारी-बारी से उनकी फैक्ट्री से भाग जाते थे।
इसलिए परेशान होकर इन्हीं सारी प्रॉब्लम को सॉल्व करने की रिस्पांसिबिलिटी दी गई थॉमस बैगिंग मैंकोले को जिन्हें आप लॉर्ड मै कोले के नाम से भी जानते हैं तो यहां पे मै कोले भाई साहब ने दिन रात एक करके एक प्रपोजल रेडी किया जो बिल्कुल पर्शियन एजुकेशन सिस्टम का ब्लूप्रिंट था।
मै कोले बखूबी तरीके से जानते थे कि भारत के अंदर इस सिस्टम को लाकर वो यहां के लोगों का ब्रेन को हैक कर सकते हैं और इसका लाइव एग्जांपल तो उन्होंने अमेरिका जैसे देशों में देख ही लिया था इसलिए उन्होंने वही किया और साल 1835 में मैकोल ने इंग्लिश एजुकेशन सिस्टम को तैयार किया जिसे इस इंडिया कंपनी ने बड़ी ही बेशर्मी के साथ इंग्लिश एजुकेशन एक्ट 1835 को पास भी कर दिया।
और इसमें मजेदार बात यह है कि इस एक्ट को भारत के पीछे लाने के कारण यह दिया जाता है कि ब्रिटिश लोग हमारे भारत को सिविलाइज करना चाहते थे इसलिए यह कानून हमारे लिए बनाया गया है उनके लिए थोड़ी ना बनाया गया है और कई बेश्रम लोग तो इसको सच भी मान लेते हैं कि ये एजुकेशन सिस्टम आने से पहले हमारा कोई वजूद ही नहीं था।
हमारे देशवासियों को तो इससे पहले कुछ आता ही नहीं था जबकि ये लोग हमारी हिस्ट्री को भूल जाता है जिस वक्त ब्रिटिश लोग कबीले में रहकर आपस में लड़ रहे थे जिन्हें कपड़े पहनने का भी ज्ञान नहीं था उस वक्त भारत अकेला ऐसा देश था जो सबसे पहले और सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी चला रहा था जहां लोग मैथमेटिक्स मेडिसिन पॉलिटिक्स वेलफेयर एस्ट्रोलॉजी म्यूजिक फिलोसोफी जैसे अनगिनत सब्जेक्ट पढ़ते थे।
और तो और इस यूनिवर्सिटी के अंदर सिर्फ भारत के ही नहीं बल्कि ग्रीस इराक नेपाल श्रीलंका चाइना जैसे अनगिनत कंट्री से लोग दूर-दूर से पढ़ने के लिए आते थे और उन सभी कंट्री को सिविलाइज करने की जिम्मेदारी भारत के ऊपर थी और ये लोग भारत को सिखाने के लिए आ गए और ये बात कोई मैं हवा में नहीं बता रहा हूं बल्कि ये नया एजुकेशन सिस्टम बनाने वाले मै कोले साहब खुद इस बात को ब्रिटिश पार्लिमेंट में कबूल करते हैं।
कि मैंने पूरे भारत में भ्रमण किया लेकिन मुझे कोई भी गरीब या चोर नहीं दिखा और इस देश को हम तब तक गुलाम नहीं बना पाएंगे जब तक कि हम इस कंट्री के स्पिरिचुअल और कल्चर हेरिटेज को पूरी तरह से बर्बाद नहीं कर देते जिसका प्रमाण आप खुद अपनी आंखों के सामने देख सकते हो।
अब हालांकि कई सारी पेड़ मीडिया वाले इस रिसर्च को झूठ मानने में लगे हुए हैं और इसमें कोई बड़ी हैरानी की बात भी नहीं है लेकिन इन पेड मीडिया वालों के सारे किए किराए पर पानी फेर दिया धर्मपाल जी की रिपोर्ट ने जो साल 1960 के दौरान लंडन में रहकर ऑफिस का काम किया करते थे और उनके ऑफिस के काम की वजह से उन्हें ज्यादातर समय लंदन की लाइब्रेरी में ही गुजारना पड़ता था।
तभी एक दिन उनके हाथ में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की एक फाइल लग गई जिस फाइल के अंदर ऐसे-ऐसे सर्वे और रिकॉर्ड्स थे जिसे देखकर लोगों के होश उड़ गए अब इन सर्विस को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने साल 1830 में इसीलिए कंडक्ट करवाया था ताकि वह भारत के अंदर पहले से चल रहे गुरुकुल सिस्टम को सही से समझ सके और फिर बाद में लॉर्ड मैकल की मदद से पुराने गुरुकुल सिस्टम की जगह पे अपना नया एजुकेशन सिस्टम को भारत में लगा कर के भारत को पूरी तरीके से गुलाम बना सके।
और इस सर्वे के अनुसार1830 में ईस्ट इंडिया कंपनी के रिसर्चस खुद बताते हैं विलियम एडम जिन्होंने बंगाल और बिहार का सर्वे किया था उनका कहना है कि बिहार और बंगाल के अंदर ही सिर्फ 1 लाख से ज्यादा गुरुकुल मौजूद है वहीं दूसरी तरफ थॉमस मुरन और जो मद्रास का क्षेत्र संभाल रहे थे उनका क्लियर लिखित कहना है कि भारत के अंदर मुझे एक भी ऐसा गांव नहीं मिला जिसके अंदर एक भी स्कूल ना हो।
और उन स्कूल में सबसे ज्यादा राष् और प्रेम सिखाया जाता है और वहां के बच्चों को हर एक स्किल सिखाई जाती है जो उनके जीवन में काम आ सके ना कि किताबी ज्ञान और भाई मजेदार बात ये है कि इन सर्वेस के बाद इन सारे डेटा पॉइंट को हासिल करने के बाद ही मैकल भाई साहब ने भारत को बर्बाद करने के लिए इंडियन एजुकेशन सिस्टम को तैयार किया था।
जिसे कि बदकिस्मती से आज भी हम अपने कंधों पर लिए ढो रहे हैं उधर अमेरिका वाले तो समझ चुके हैं कि आखिर कैसे स्कूल हमारे ब्रेन को गुलाम बना रहा है इसलिए वहां के लोग तो अपने बच्चों को स्कूल में भेजना ही नहीं चाहते लेकिन भारत के अंदर हालात और भी ज्यादा खराब होते जा रहे हैं जहां मां-बाप एजुकेशन को बच्चे की खुशी या कभी-कभी तो बच्चों की लाइफ के ऊपर भी रख देते हैं जिसका नतीजा यह होता है कि बच्चे बेचारे खुद को गिस गिस कर पास तो हो जाते हैं लेकिन तब तक वो अपनी क्रिएटिविटी इनोसेंसी और जॉय पूरी तरीके से खो देते हैं।
हां परिवार वाले तो ढोल बजाकर खुशी तो मना लेते हैं लेकिन उधर बिचारे बच्चों को कुछ भी समझ में नहीं आता कि उसके साथ हो क्या रहा है यानी कि भाई आज भी होता बिल्कुल वैसा ही है जो सालों पहले पर्शिया के पूंजीवादी लोगों ने डिसाइड किया था बिल्कुल वैसा ही और यह सब करके मिलता क्या है एक ऐसी लाइफ जहां जॉब मिलनी भी मुश्किल होती है।
और अगर जॉब मिल भी गई तब भी आप इस पढ़ाई की जर्नी में अपना सब कुछ खो देते हो जहां आपके पास ना तो कोई दोस्त होता है ना तो कोई रिश्तेदार और ना ही परिवार वाले वो भी सब दूर-दूर होते हैं अपने घर पे और बेचारा एक अकेला मासूम एक बंद कमरे में अपनी जंग लड़ रहा होता है और ये सब करने के बाद मिलता क्या है बस एक ऑफिस का काम करना आता है और कुछ नहीं जिसके लिए ही तो आपको सालों से ट्रेन किया जाता है।
और बस अंत में बन गए आप सिस्टम के गुलाम पूरी तरीके से लेबर मजदूर लेकिन हां अब आप यहां पे पूछ सकते हो कि आखिर इस सिस्टम को फॉलो करने के अलावा हम कर भी क्या सकते हैं तो भाई साहब हमने ये आर्टिकल इसलिए लिखी है ताकि आप इस एजुकेशन सिस्टम को बारीकी से समझ पाओ और इस बात को रियलाइज कर पाओ।
कि अपने स्कूल कॉलेज में बताई गई बातों को रटने के अलावा उन स्किल पर फोकस हमें करना चाहिए जो एक्चुअली में हमें जिंदगी जीने के लिए जरूरी होती है जो सही मायने में हमें अपने दोस्तों रिश्तेदारों या परिवार से दूर करने के बजाय जो हमें खुले मन से अपने परिवार के साथ जिंदगी जीने की आजादी देती है बाकी आप इस एजुकेशन सिस्टम के बारे में क्या सोचते हो वो हमें कमेंट करके जरूर से बताना।
लेकिन क्या आपको यह पता है कि इस एजुकेशन सिस्टम को डिजाइन करते वक्त इंग्लिश को ही इतना प्रायोरिटी क्यों दिया गया है कि आज जहां देखो वहां इंग्लिश का ही बोलबाला चल रहा है क्या वो अंग्रेज इंग्लिश बोलते थे इसलिए या फिर इसके पीछे भी कोई और ही षडयंत्र छुपा हुआ है जिसके बारे में अगर आप बारीकी से जानना चाहते हो ना तो कमेंट में हमें नेक्स्ट पार्ट लिखकर बता दो हम इसके बारे में भी आपके लिए डिटेल रिसर्च आर्टिकल लेकर आएंगे।
धन्यवाद।।।
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